स्त्री-पुरुष संबंध के समीकरण पर संवाद के लिए इससे अच्छा और कोई किताब हो ही नहीं सकता। सुशोभित ने बहुत ही अच्छे और बेहतर ढंग से एक-एक वाक्य को बहुत ही गहराई से सामने रखा है।
सुशोभित द्वारा लिखित “पवित्र पाप” का मूल स्वर वार्ता, विमर्श और वृतांत का है। उसकी मनोवैज्ञानिक और व्यक्तिवादी है और वह पाठकों को जिरह में सम्मिलित होने के लिए पुकारती है।
एक अंतिम बार पीछे मुड़कर देखना और विदा कहना जरूरी होता है। जीवन चाहे जितना अधूरा हो, विदा पूर्ण होनी चाहिए। जिनके पास पूरी विदा नहीं, वो आधी जलकर बुझी चिता की तरह होते हैं। राख नहीं धुआँ।
तेरी तड़प से न तड़पा था मेरा दिल लेकिन तेरे सुकून से बेचैन हो गया हूँ मैं।
सुंदर दिखना स्त्री के अस्तित्व की केंद्रित आकांक्षा है। दो गर्विले जब प्रेम करते हैं तो गर्व उनके प्रेम त्रिकोण की तीसरी भुजा होती है। जो टल जाए, वह सर्वनाश ही क्या!
Q: पवित्र पाप के लेखक कौन है? Ans: सुशोभित इस किताब के लेखक हैं। Q:“पवित्र पाप” किस बारें में है? Ans: स्त्री-पुरुष संबंध के समीकरणों पर संवाद है।