Summary of Pavitra Paap Book in Hindi by Sushobhit pdf download. स्त्री-पुरुष संबंध के समीकरण पर संवाद के लिए इससे अच्छा और कोई किताब हो ही नहीं सकता। सुशोभित ने बहुत ही अच्छे और बेहतर ढंग से एक-एक वाक्य को बहुत ही गहराई से सामने रखा है।
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Review of Pavitra Paap Book in Hindi by Sushobhit
ओवर आल किताब खत्म हो चुकी है। मैने इस किताब की कवर को देख कर खरीदा था। पढ़ने पर पता चला कि अंदर का भाव तो कुछ अलग है, पर जो भी है एक बार सबको जानना चाहिए। चाहे वो महिला हो या पुरुष। और मैं एक पुरुष हूँ, तो मैं सबसे ज्यादा पुरुष वर्ग को ही प्रेरित करूंगा, इस किताब को पढ़ने के लिए। ताकि वो महिला वर्ग को इस किताब के माध्यम से समझ सके, जान सकें और उनके प्रति अपनी संवेदनशीलता कायम रखे।
“पवित्र पाप” सुशोभित द्वारा लिखित यह किताब स्त्री-पुरुष संबंध के समीकरणों पर एक विचार या यू कह लीजिए कि संवाद है। जिसे सिर्फ पढ़ना नहीं, उसपे अमल भी करना होगा। किताब पढ़ने भर से पता चलता है कि सुशोभित से ज़्यादा तो महिला वर्ग भी अपने को इतना नहीं जानता होगा। जितना उनकी किताब को पढ़ कर एक महिला वर्ग अपने को जानेगी।
सुशोभित की यह किताब प्रत्येक मनुष्य को प्रत्येक पृष्ठ को पढ़ते हुए सोचने का एक नया आयाम देती है। विभिन्न विषयों पर लेखक के विचार आपके पूर्वाग्रह को चुनौती देने के लिए पर्याप्त है। सार्वजनिक पटल पर एक लेखक के रूप में जो ये नई बहस लेखक ने छेड़ी है, उसके लिए काफी हिम्मत और मेहनत की जरूरत पड़ती है, जिसे सुशोभित ने बखूबी निभाया है।
सुशोभित ने इस किताब को लिखते वक्त ऐसी कोई भी टॉपिक नहीं छोड़ा है, जिसे महिला वर्ग उनसे शिकायत करे। चाहे वो प्रेम हो, विवाह हो, अवैध संबंध हो, यौनेच्छा हो, समलैंगिकता हो, बलात्कार हो, कुआरापन हो, सहमति परित्याग हो, विवाहेतर संबंध हो, उम्र का बंधन हो, कन्यादान हो, प्रणय निवेदन हो, या फिर बुर्का। सुशोभित ने बड़े ही सहजढंग से सरल तरीके से छान-बिन करने के बाद एक-2 तथ्य को उदाहरण या कहानी के माध्यम से अपने बात या सुविचार को सामने रखा है, जिसे सबकों जानने की जरूरत है।
Summary of Pavitra Paap Book in Hindi
सुशोभित द्वारा लिखित “पवित्र पाप” का मूल स्वर वार्ता, विमर्श और वृतांत का है। उसकी मनोवैज्ञानिक और व्यक्तिवादी है और वह पाठकों को जिरह में सम्मिलित होने के लिए पुकारती है। विभिन्न पुस्तकों, फिल्मों परिघटनाओं और दंतकथाओं को एक दृष्टांत की तरह सामने रखकर भी कुछ लेख गुथे गए हैं। कुछ लेखों में निजी संस्मरणों की छापें है। किन्तु सभी लेखों को एक सूत्र में पिरोने वाली भावना वही है, जो इस पुस्तक का घोष-वाक्य है- स्त्री-पुरुष के संबंध के समीकरणों पर संवाद।
“पवित्र पाप” पुस्तक में आपको अवैध संबंध, व्यभिचार, समलैंगिकता, बलात्कार, इव-टीजिंग, सहमति परित्याग, विवाहेतर संबंध, इंटरफेथ मैरिज, उम्र का बंधन, संबंध विच्छेद, प्रणय निवेदन जैसे जटिल और विवादित विषयों पर पर्याप्त मनोवैज्ञानिक गमंभीरता से विचार प्रस्तुत किये गए हैं।
इस पुस्तक् के अंदर तो लेखक के ऐसी बहुत सारे विचार हैं, जिनकों जानना बहुत जरूरी है लेकिन मैं उनमें से कुछ विषय को ही आपके समक्ष रख रहा हूँ ताकि आप सुशोभित की भावनाओं को समझ सकें और विचार करें।
कन्यादान-
सुशोभित अपना विचार रखते हैं कि आखिर “कन्यादान” क्यों होता है? दान शब्द का इस्तेमाल तो किसी वस्तु को देने में किया जाता है, जैसे कि रुपया-पैसा, वस्त्र, खाना-पानी और घर-बार इत्यादि। फिर ये शब्द महिलाओं के साथ क्यों जुड़ता है, क्या महिला कोई वस्तु है? नहीं! और सबसे बड़ी बात ये कि ये दान महिला वर्ग के साथ क्यों? पुरुष वर्ग के साथ क्यों नहीं?
अब अगर बात करे अपने विचार कि तो आप ज़रा सोचिए, कि आपने अकसर हर उस माँ-बाप से सुना होगा कि लड़कियां पराई घर की होती हैं, या पराया धन होती हैं, तो फिर आप पराया धन को दान कैसे कर सकते हैं। क्या सिर्फ इसलिए कि वो एक लड़की है? ऐसा कब चलेगा। वो भी आज के जमाने में।
विदाई-
अब बात आती है विदाई की। महिला और पुरुष की शादी के बाद अगली सुबह महिला वर्ग को अपना घर छोड़ कर लड़के के घर जाना होता है। ऐसा क्यों? पुरुष वर्ग को अपना घर क्यों नहीं छोड़ना चाहिए? महिला जो आज तक अपने पिता के टाइटल, जाति, धर्म और गोत्र में रह रही थी। अब शादी के बाद वो अपने पति के टाइटल, जाति, धर्म और गोत्र को अपने साथ जोड़ना होगा। ऐसा क्यों? और कब तक? वो क्यों नहीं अपने जाति, धर्म और गोत्र के साथ रह सकती।
बुर्का-
बुर्का! आज कल ये शब्द ने बहुत ज़ोर पकड़ा था, रास्ते से लेकर कोर्ट तक। पर क्यों? क्या सिर्फ इसलिए कि पुरुष वर्ग अपने पत्नी को दूसरों से छिपाने के लिए जबरस्ती पहनवाता है। नहीं! अब ऐसा नहीं होना चाहिए। पुरुषों की भाति इन्हे भी आज़ादी का पुरा हक है। रही बात बुर्का की तो सिर्फ महिला वर्ग ही क्यों पहने, पुरुष वर्ग भी पहने।वो शादी के बाद अपने चेहरे कुआरी लड़कियों के तरफ कर सकता है यानि कि कुआरी लड़किया उसे देख सकती हैं, लेकिन महिला वर्ग को पुरुष वर्ग के ना देखने के लिए बुर्का पहना दिया जाता है।
2007 के समय ही एक पंचिम देशों ने इसे बैन कर दिया। जिससे महिलाओं को उनका अधिकार मिला। ऐसा करने में भारत भी आगे बढ़ रहा है जो कि एक सराहनीय कदम है लेकिन कुछ लोग इसका अपनी स्वार्थ के लिए नहीं चाहते। तो जो नहीं चाहते, वो अपने क्यों नहीं पहनते। महिला वर्ग को आखिर कब तक ये बंधन सहना पड़ेगा। इसपे थोड़ा विचार करने कि ज़रूरत है।
बलात्कार-
कहाँ तो एक समय था, जब यौन संबंध में स्त्री की सहमति का ही कोई मोल नहीं था। वह दौर आज भी बित गया है, वैसा नहीं है। फिर भी ‘सहमति से संसर्ग’ को सभ्यता का एक मानक आज के समाज ने स्वीकारा है। ‘रेप’ और ‘मैरिटल रेप’ को इसके सम्मुख अपराध की तरह चिन्हित किया है। ‘ना का मतलब ना’ की बात निकली है और बहुत दूर तक गई है।
किन्तु उस पशु के बारे में क्या, जो शिक्षित से शिक्षित पुरुष के भीतर भी अचानक किसी एक असावधान क्षण में जाग उठता है? अक्सर स्त्रियाँ पुरुषों पर इस आशय का आरोप लगाती हैं कि हर पुरुष बलात्कारी है। यह कथन निश्चित ही अतिरेकपूर्ण और अनेक पुरुषों के प्रति अन्यायपूर्ण भी है।
किन्तु इस सच से भला कौन पुरुष अपने भीतर झाँककर इंकार कर सकता है कि स्त्री को रौंदकर उसे दंडित करने की भावना उसके भीतर गहरे तक बैठी हुई है?
यौनक्रिया में निहित पुरुष की प्रधानता के भ्रम ने उसके अवचेतन को विरूपित कर दिया है। पुरुष को लगता है कि संभोग में वह प्रथम है, प्रमुख है, प्रदाता है, यद्यपि वैसा है नहीं। संभोग दो प्रणयाकूल व्यक्तियों के बीच घटित होने वाला आवेग का संगीत है, कोई युद्ध नहीं, जैसा कि पुरुष को लगता है।
ध्यान देने योग्य बातें-
- यौनेच्छा का निर्धारण नैतिकता और अनैतिकता के आलोक में नहीं किया जा सकता । सामाजिक व्यवस्था एक दूसरी चीज है। यह सड़क पर लेफ्ट साइड में चलने की तरह है । अगर सड़क पर चलने वाले लेफ्ट साइड में चले तो अराजकता व्याप्त हो जाएगी और व्यवस्था भंग हो जाएगी। किंतु लेफ्ट साइड चलने भर से कोई नैतिक और नहीं चलने भर से कोई अनैतिक नहीं हो जाता। वैसा ही यौनेच्छा के साथ है।
- मनुष्य की अदम्य यौनेच्छा एक ऐसा आदिम आवेग है, जिसने सामाजिक बुद्धि के तटबंधों में रहकर बहना अभी सीखा नहीं है और भविष्य में भी वह ऐसा कभी सीखने नहीं वाली है। इसका यही अर्थ है कि मनुष्य के विवेक पर उसके हृदय का आधिपत्य रहने वाला है।
- स्त्रियाँ अपने भीतर अनेक और परस्पर विपरीत सत्यों को समाहित कर सकती हैं। पुरुष एकरैखिक विश्लेषण में खट जाता है, जबकि स्त्री सामान्य तर्क से नहीं सोचती। वो सर्वाइवल की इंस्टिकट्स से चलती है। उनका यह कठोर निर्द्वन्द्व एक य दो या तीन पुरुष के सर्वनाश में भले निमित्त बन जावे, किंतु संसार की रक्षा वही करता है।
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- सफल मनुष्य सुंदर स्त्रियों को जीत लेते हैं और इसके बाद जो श्रेणियाँ बचती हैं, वे अपने लिए अनेक समझौते और व्यवहार-कुशलताओं और संतोषप्रियता और मितव्ययिता के गुणों के निर्वाह की कथाओं में विचरती रहती हैं। प्यार में ‘लुजर्स’ के लिए कोई ‘आरक्षण’ नहीं होता।
- प्रेम में की जाने वाली घृणाएं अत्यंत क्रूर होती है। प्रेम अगर एक अन्धी लालसा है, तो हमें इस भ्रम में क्यों रहना चाहिए कि प्रेम हमें अनिवार्यतः उदात्त ही बनाएगा? प्रेम बहुधा आत्म के पोषण का ईधन भी होता है। ‘मैं प्रेम करता हूँ’ , यह वाक्य बहुधा मेरी व्याप्ति का साधन भी होता है। प्रेम अपनी प्रकृति में मूलतः औपनिवेश होता है। वह इस उपनिवेश के बाहर स्थित स्वतंत्र सत्ताओं को बर्दास्त नहीं कर पाता।
- वाइंडींग बैक द क्लाक: जीवन से मृत्यु और मृत्यु से फिर जीवन सृष्टि का महानृत्य। समय शायद एक सीधी लकीर में नहीं चलता और ज़िंदगी का तरन्नुम जब हमारे भीतर से गुजरकर हमें खँख कर रहा होता है, तब भी कुछ ना कुछ हमेशा शेष रह जाता है। जीवित रहने की तमाम कुरूपताओं के बीच हमें उस शेष से कभी नजर नहीं डिगाना चाहिए।
- एक अंतिम बार पीछे मुड़कर देखना और विदा कहना जरूरी होता है। जीवन चाहे जितना अधूरा हो, विदा पूर्ण होनी चाहिए। जिनके पास पूरी विदा नहीं, वो आधी जलकर बुझी चिता की तरह होते हैं। राख नहीं धुआँ।
- शायद पुरुष अभी इतने शिक्षित नहीं हुए हैं कि लड़कियां उनकी संगत में सहज हो सकें। संबंधों के अनेक स्तर होते हैं, क्योंकि एक मनुष्य के रूप में हमारे भीतर अनेक आयाम हैं। एक संबंध को घटित होते देखना सुखद है। उसकी अपनी गति है। हमें स्वयं को उसपर थोपना नहीं चाहिए दरवाजा हमेशा इतना खुला हो कि जब चाहे उठकर बाहर जाया जा सके। तभी तो स्त्री निरदवंद होकर भीतर प्रवेश करेगी- जैसे किसी अचरजलोक में जाती हो, ऐसे अंदेशों से नहीं कि जैसे वो किसी व्यूह में फंस रही हो!
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साहिर साहब ने बहुत गहरी बात कही थी-
- तेरी तड़प से न तड़पा था मेरा दिल लेकिन
- तेरे सुकून से बेचैन हो गया हूँ मैं।
किताब के कुछ अच्छे कोट्स-
- सुंदर दिखना स्त्री के अस्तित्व की केंद्रित आकांक्षा है।
- संसार भावना से नहीं चलता, व्यवस्था से चलता है।
- मनुष्य की चेतना और सामाजिक संरचनाएँ परस्पर संघर्षरत रहते हैं, यह मनुष्य नियति का एक अनिवार्य संदर्भ है।
- स्त्री और पुरुष का संबंध बहुत जटिल और बहुस्तरीय होता है।
- बलात्कार केवल एक अपराध नहीं है, वह एक आपराधिक मनोदशा भी है।
- यौन श्रेष्ठता का दंभ अनंत काल से पुरुष के मनोविज्ञान में बैठा हुआ एक बनैला पशु है। जब तब उभरकर वह सामने आ जाता है।
- मनुष्य के मनोविज्ञान में ही कुछ ऐसा है कि भीड़ में आकर वह खुद को उन्मुक्त करता है।
- शररबियों की महफ़िल में किसी होशवाले का आ जाना उनकों वैसे ही नागवार होता है, जैसे होशवाले की महफ़िल में किसी बेमुरौववत का चले आना।
- आत्मचिंतन हमेशा चलते रहना चाहिए।
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- सुख एक मानवीय शब्द है। सुख की चाहना ही मनुष्य को परिभाषित करती है।
- प्रणय निवेदन पुरुष का स्वाभाविक अधिकार है।
- दो गर्विले जब प्रेम करते हैं तो गर्व उनके प्रेम त्रिकोण की तीसरी भुजा होती है।
- जो टल जाए, वह सर्वनाश ही क्या!
- जीवन मृत्यु से अधिक चुनौतीपूर्ण और कम काव्यात्मक होता है।
- जीवन में एक पल को भी प्यार मिले तो वह सौभाग्य ही है, किन्तु यह जानकर प्यार करना कि कल यह प्यार नहीं रहेगा, बड़ी कठिन परीक्षा है।
- प्रयास निरंतर हो तो मरुस्थल में भी जलधार फुट आती है।
- प्यार पर बहुत बंदिशे होती हैं, बंदिशों से भले किसी को प्यार न हो!
FAQ-
Q: पवित्र पाप के लेखक कौन है?
Ans: सुशोभित इस कितब के लेखक हैं।
Q: “पवित्र पाप” किस बारें में है?
Ans: स्त्री-पुरुष संबंध के समीकरणों पर संवाद है।
Q: पवित्र पाप की मदद से लेखक हमशे क्या कहना चाहता है?
Ans: पुरुष वर्ग को महिला वर्ग के लिए हमेशा सद्भावना रखनी चाहिए और उन्हे भी अपने जीवन को पूरी तरह से जीने का आज़ादी होनी चाहिए। जैसे पुरुष वर्ग जीते आयें हैं।
Q: स्त्री-पुरुष के बीच कितने तरह के प्रेम-संबंध होते हैं?
Ans: स्त्री-पुरुष के बीच तीन तरह के संबंध होते हैं, प्लैटोनिक प्रेम-संबंध,रोमैन्टिक प्रेम-संबंध और ऐरोटिक प्रेम-संबंध।
Q: प्लैटोनिक प्रेम-संबंध क्या होता है?
Ans: प्लैटोनिक रिश्तों का आधार है मनुष्य के भीतर मौजूद अपार्थिव की वह ललक, जिसे उसकी क्षमता से कम आँका जाता है। जबकि वास्तव में मनुष्य की आत्मा अपार्थिव, अनश्वर, अभौतिक के लिए भूखी है और मनुष्य को नित्यप्रति नाना वायवी यात्राओं पर लिए जाती है।
Q: रोमैन्टिक प्रेम-संबंध क्या होता है?
Ans: रोमांस शब्द प्रेम के वशीभूत होने वाले चेष्टाओं का सीधा-सीधा पर्याय है। यह आज लव शव का समानार्थी भी बन गया है। यह अत्यंत व्यापक और सर्वव्यापी भावना है। कोमलता, सुंदरता, रोमांच के आशय इससे व्यक्त होते हैं। दुनिया में प्रेम के लिए जितना भी कला-साहित्य-दर्शन रचा गया, उसके मूल में चाहे ऐरोटिक-प्रेम की एक झीनी अन्तर्धाराहों, किन्तु उसका शिल्प रोमैन्टिक-प्रेम से ही निर्मित है।
Q: ऐरोटिक प्रेम-संबंध क्या होता है?
Ans: ऐरोटिज्म आदमी और औरत के हर ताल्लुक की जड़ में पैठी हुई है। यह वह आदिम ऊर्जा है, जो समस्त स्त्री-पुरुष समीकरणों को गतिमान बनाती है। यह मनुष्य को भयभीत भी करती है, लज्जित भी करती है, ग्लानि से भी भरती है और रोमांच से बारम्बार पुकारती भी है। यह चाहना प्रेम का मूलाधार है।
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