मधुशाला विशेष 

1935 के दशक में हरिवंश राय बच्चन द्वारा लिखा गया एक ऐसी कविता जिसने सबको अपने आगोश में लिया 

मधुशाला विशेष 

हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला से पान कर बाहर निकालने वाले अपने होश को खो कर मधुशाला के कायल हो गए।  

मधुशाला विशेष 

बच्चन के मधुशाला में 135 रुबाइयाँ(चौपाई) थी। जिसने एक किताब का रूप ले लिया। 

मधुशाला विशेष 

मधुशाला का पहला संस्करण 1935 में और आज तिहत्तरवां संस्करण वितरण किया जा रहा है। जो इसकी खासियत और मांग को दर्शाता है। 

धर्म-ग्रंथ सब जल चुकी है जिसके अंतर की ज्वाला, मंदिर, मस्जिद, गिरजे-सबको तोड़ चुका जो मतवाला,

पंडित, मोमिन, पादरियों के              फंदों को जो काट चुका,                   कर सकती है आज उसी का      स्वागत मेरी मधुशाला।

बजी न मंदिर में घड़ियाली, चढ़ी न प्रतिमा पर माला, बैठा अपने भवन मुअज़्जिन देकर मस्जिद में ताला,

लूटे खजाने नरपतियों के          गिरी गढ़ों की दीवारें;                   रहे मुबारक पिनेवाले,                    खुली रहे यह मधुशाला।

बड़े-बड़े परिवार मिटे यों, एक न हो रोनेवाला, हो जाएं सुनसान महल वे, जहां थिरकती सुरबाला,

राज्य उलट जाएँ, भूपों की             भाग्य-सुलक्ष्मी सो जाए;                                 जमें रहेंगे पीने वाले,                                 जमा करेंगी मधुशाला

एक बरस में एक बार ही जलती होली की ज्याला, एक बार ही लगती बाजी, जलती दीपों की माला;

दुनियावालों, किन्तु, किसी दिन                 आ मदिरालय में देखों,                         दिन को होली, रात दिवाली,                         रोज़ मनाती मधुशाला।