The Most Powerful 31 Massage of Paramhans Yoganand in Hindi. “Autobiography of a yogi” आम जनमानस के लिए ऐसी किताब है, जीसे पढ़ना, जानना और समझना बहुत ही जरूरी है। अपनी जीवन को जीने के लिए मनुष्य को बहुत सारी परेशानियों का सामना करना पड़ता है, लेकिन परमहंस योगानन्द की ये किताब उन सभी परेशानियों का एक मात्र निवारण है।
Table of Contents
Massage of Paramhans Yoganand in Hindi 1-6
- साधारण प्रेम- साधारण प्रेम स्वार्थी होता है, उसके अंदर इच्छाएं और संतोष गहराई तक होते हैं। दिव्य प्रेम बिना किसी शर्त, बिना किसी सीमा के अपरिवर्तित होता है। शुद्ध प्रेम के स्पर्श मात्र से मानव हृदय में होने वाले परिवर्तन सदा के लिए रुक जाते हैं। यदि कभी भी तुम मुझे ईश्वर प्राप्ति की अवस्था से विचलित होते देखो तो वचन दो कि मेरा सिर अपनी गोद में रख कर मुझे उस दिन प्रभु के पास लौटने के लिए मेरी सहायता करोगे जिसे हम दोनों पूजते हैं।
- अहिंसा और पतंजलि- “अहिंसा से पतंजलि का तात्पर्य था कि हिंसा की इच्छा का त्याग”। श्री युक्तेश्वर जी के लिए मेरा मन एक खुली किताब की तरह था। “यह इस जगत में अहिंसा का अक्षरशः से पालन करना मुश्किल है। मनुष्य को हानिकारक जीव की हत्या करने के लिए दबाव डाला जा सकता है, लेकिन उसे गुस्सा करने अथवा दुश्मनी करने के लिए दबाव नहीं डाला जा सकता है। जीवन के सभी प्रकार के पाप पास माया जगत की हवा पर समान अधिकार है, जो संत सृष्टि के रहस्य को भेद लेता है, वह इसके असम विस्मयकारी रूपों के साथ तारतम्य बना लेता है। अपने अंदर की हिंसा की भावना को नष्ट करके सभी लोग इस सत्य को समझ सकते हैं।”
- श्री युक्तेश्वर जी ने कहा- जब तक तुम्हें इस धरती की ताजी हवा मुफ्त में मिलती है, तब तक तुम्हारा धर्म है कि तुम अपनी कृतज्ञता दिखाते हुए इसे अपनी अच्छी सेवा दो। वह जिसने स्वयं को स्वास रहित स्थिति द्वारा समाधि की अवस्था में प्रतिष्ठित कर लिया गया हो, वही जगत के कर्तव्यों से मुक्त है।
- मुकुंद- मनुष्य का अहंकार जो उसमें कूट-कूट कर भरा हुआ है, उसे केवल निश्चल प्रहार द्वारा ही उखाड़ा जा सकता है। इसके जाते ही दिव्य शक्ति अर्थात ईश्वर का मार्ग बिना किसी रोक-टोक के सुगम हो जाता है । अन्यथा स्वार्थ के कारण पत्थर रुपी ह्रदय में घुसने का ईश्वर का प्रयास बेकार हो जाता है।
- गुरु के प्रति श्रद्धा- ऐसा गुरु बहुत साहसी होता है, जो अंधकार से भरे मानवता की अशुद्धियों से भरपूर कच्ची धातु को रूपांतरित करने का काम अपने हाथ में लेता है। एक संत के साहस संसार में लड़खड़ाते नेत्रहीन लोगों के प्रति करुणा में स्थित होता है।
- मनुष्य का अपने इंद्रियों के प्रति लगाव- सामान्य पुरुष में शराब और सेक्स की चाहत गहराई तक रहती है और उनका आनंद लेने के लिए किसी सूक्ष्म बोध क्षमता की आवश्यकता नहीं होती। इंद्रियों की बुराई की तुलना सदाबहार करवीर पौधे से की जा सकती है, जिसके रंग-बिरंगे फूलों से खुशबू निकलती रहती है, लेकिन बहुत देखा हर भाग विश्व भरा होता है। इसका उपचार भी स्वयं के अंदर निहित है, जो उस सुख से प्रकाशमय है, जिसे हजारों दिशाओं में एक अंधे की तरह ढूंढा जा रहा है।
Massage of Paramhans Yoganand in Hindi 7-14
- अपनी इच्छाओं को कंट्रोल करे- गलत इच्छाओं का अभी अंत करो; अन्यथा वे स्थूल शरीर के खत्म होने के बाद भी सूक्ष्म शरीर का पीछा नहीं छोड़ेंगे। पहले ही शरीर कमजोर होता है, तब मन को इसका निरंतर विरोध करना चाहिए। अभी आकर्षण आपका पीछा पूरी शक्ति के साथ करता है तो इसे अपनी दृढ़ इच्छा-शक्ति और बिना किसी लगाव के आत्म-निरीक्षण द्वारा इस पर विजय पानी चाहिए। हर प्रकार की प्राकृतिक वासना पर विजय पाई जा सकती है।
- वासनाओं को कंट्रोल करों- छोटी-छोटी वासनाएं शांति रूपी जलाशय में बने छेदों के समान हैं, जो शरीर के स्वस्थ रखने वाले जल को विषयाशक्ति के रेगिस्तान में बहा देती हैं। मनुष्य की खुशी में इससे बड़ा बाधक उसकी गलत इच्छाओं को जागृत करने वाले आवेग की शक्ति है। इस जगत में आत्म संयम के सिंह बनकर विवरण करो; यह ध्यान रखो कि इंद्रिय रूपी मेंढक तुम्हें इधर-उधर न उछाले।
- साधु-संत- साधु-संतों की गहन शांति किसी प्रवचन से ज्यादा प्रभावशाली होती है। वह जिसका क्रोध नियंत्रण में हो, वह पराक्रमी से बेहतर है; और जिसने स्वयं को जीत लिया हो, वह राज्य वित्त विजेता से भी बड़ा है।
- स्वयं को विस्तारित करें- शरीर को अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए अपनी आत्मा को ब्रह्मांड की उत्पत्ति के रहस्य को अपने में आत्मसात करते हुए स्वयं को विस्तारित करते रहना चाहिए।
- ईश्वर ही आनंद- बाहर की सांसारिक इच्छाएं हमें अपने अंदर के ईडन यानी स्वर्ग से बाहर निकाल देती हैं। वे एक नकली आनंद, जो कि आत्मा की शांति जैसा आभास मात्र है। इस खोए स्वर्ग को दोबारा दिव्य ज्ञान से जल्दी ही वापस पा सकते हैं। ईश्वर नित ऐसा नयापन है, जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती, इससे हम कभी ऊब नहीं सकते। क्या उससे कभी किसी का मन ऐसे आनंद से भर सकता है, जो अनंत काल तक नया आनंद देता रहा।
- अंतर्ज्ञान- अंतर्ज्ञान आत्मा का मार्गदर्शन है, जो मनुष्य के मन में स्वाभाविक रूप से तब प्रकट होता है, जब उसका मन शांत होता है । कभी-न-कभी हर व्यक्ति को सच्चा पूर्व संकेत मिलता है या अपने विचार को सफलतापूर्वक दूसरे व्यक्ति तक पहुंचाया हुआ होता है और इस तरह के पूर्व संकेत या आभास कोई स्पष्टीकरण नहीं होता।
- परिवर्तन का प्रभाव- मनुष्य को अपने मानव स्तर पर दो तरह की शक्तियों का सामना करना पड़ता है, पहला अपने अस्तित्व के अंदर की उथल-पुथल, जो पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश के मिश्रण के प्रभाव से होता है, दूसरा प्रकृति की बाह्य विघटनकारी शक्तियां। जब तक मनुष्य अपने जीवित रहने के लिए संघर्ष करता रहता है, तब तक पृथ्वी और स्वर्ग के असंख्य परिवर्तनों का प्रभाव उस पर पड़ता है।
Massage of Paramhans Yoganand in Hindi 15-21
- प्रकृति के नियमों का उल्लंघन- सभी मनुष्यों की बुराइयां और परेशानियां किसी ने किसी प्रकार के प्रकृति के नियमों के उल्लंघन के कारण होते हैं। हमारे ग्रंथ बताते हैं कि मनुष्य को प्रकृति के नियमों का पालन करना चाहिए और साथ ही ईश्वर की सर्वव्यापी रूप पर संदेह नहीं होना चाहिए। उसे कहना चाहिए कि “हे ईश्वर मेरा आप पर विश्वास है और मैं जानता हूं कि आप मेरी मदद करेंगे, लेकिन मैं भी अपनी तरफ से यानी मैंने, जो कुछ भी गलती की है उन्हें सुधारने की कोशिश करूंगा।“ अनेक तरीकों से प्रार्थना द्वारा, अपनी इच्छा शक्ति द्वारा, योग ध्यान द्वारा, संतों की सलाह द्वारा ज्योतिष कड़े द्वारा अतीत की गलतियों को कम या समाप्त किया जा सकता है।
- इंद्रियों पर निर्भरता- एक अज्ञानी मनुष्य जिसमें चेतना जागृत नहीं हुई है, वह अपने सभी अंतिम निर्णयों के लिए अपनी इंद्रियों पर निर्भर रहता है। इसलिए ईश्वर का प्रमाण का कोई अस्तित्व नहीं है। सच्चे साक्ष्य शास्त्र के अनुयाई जिनके पास अचल या स्थिर अंतर्दृष्टि, जिसे उन्होंने ध्यान द्वारा पाया है, समझते और जानते भी हैं और उसे जाना भी जा सकता है।
- ईश्वर का प्रमाण- एक योगी अपने मार्ग को सीधा देखता चलता रहता है, यही काफी है, उसे यह सलाह क्यों दी जाए कि वह भैंगी दृष्टि से देखें। नासिकाग्रम का अर्थ है- नासिका का मूल। ना कि नासिका का अंतिम छोर। जैसा कि विद्वानों ने उसे समझा। नाक का मूल दोनों भौहों के मध्य में है, जो कि दिव्य दृष्टि का स्थान है। क्योंकि सांख्य शास्त्र का एक मूल सूत्र है-“ईश्वर असिद्ध” सृष्टि का रचयिता यानी सृष्टि का स्वामी इसे सिद्ध नहीं किया जा सकता अथवा ईश्वर का प्रमाण नहीं होता।
- गुरु का कार्य- एक गुरु का एक मात्र कर इस संसार की मानव जाति के दुखों को कम करना है, चाहे वह इसे अध्यात्म द्वारा करें या बौद्धिक सलाह देकर अपनी इच्छा-शक्ति या भौतिक रूप से बीमारी को स्थानांतरित कर। अति उच्च चेतना या ‘अधिचेतना’ में जाकर गुरु जब भी चाहे शारीरिक वेदना और पीड़ा से अनजान या विमुख रह सकता है। कभी-कभी वह शारीरिक पीड़ा को सहन करके दूसरों की बीमारी को अपने ऊपर लेकर शिष्यों को कार्मिक नियम के कारण और उसके प्रभाव को एक उदाहरण की तरह उनकी जिज्ञासा को संतुष्ट करता है। यह नियम यांत्रिक अथवा गणितीय तरीके से काम करता है। इसीकी कार्यविधि में दिव्य ज्ञान प्राप्त सिद्ध पुरुष इसे वैज्ञानिक तरीके से बदल सकता है।
- स्वामी- स्वामी यानी स्व और आमि यानी अपनी आत्मा के साथ एकरूपता का प्रयास करने वाला यहां यह बताने की जरूरत नहीं है कि सभी जिन्हें औपचारिक रूप से सन्यासी की उपाधि मिली है उसमें हर कोई अपने ध्येय को पाने में सफल नहीं होता।
- स्वामी और योगी- एक स्वामी केवल शुष्क विवेक का अथवा कठोरता का मार्ग अपना सकता है, लेकिन एक योगी स्वयं को एक निश्चित क्रमवार विधि को अपनाना अपनाता है, जिससे उसका शरीर और मन अनुशासित रहे और आत्मा स्वतंत्र हो जाए। भावनात्मक और विश्वास की परवाह न करते हुए एक योगी एक पूर्व परीक्षित अभ्यास के क्रम को अपनाता है जिसका पालन ऋषियों ने पहले किया था। भारत में युग ने हर काल में ऐसे मनुष्य को पैदा किया है, जो सच्चे अर्थों में मुफ्त हुए, सच्चे योग क्राइस्ट अर्थात ईसा मसीह की तरह योगी थे।
- योग- प्राचीन ऋषि पतंजलि के अनुसार- “योग मन में विभिन्न तरह के विचारों का नियंत्रण है यानी उन्हें शांत करना है। उनका बहुत संक्षिप्त परंतु अत्यंत ज्ञान युक्त ग्रंथ “योग सूत्र” हिंदू दर्शन के 6 ग्रंथों में से एक है। पाश्चात्य दर्शनों के विपरीत सभी 6 हिंदू प्रणालियों में न केवल सैद्धांतिक विधि है, बल्कि इसे प्रयोगात्मक अथवा व्यवहारी प्रणालियां भी हैं। मन में उठने वाले सभी विचारों और प्रश्नों पर विचार के साथ सभी छह प्रणालियां यह निश्चित सिद्धांत मार्ग बताते हैं, जिनका ध्येय सभी दुख और पीड़ा से मुक्ति और असीम आनंद की प्राप्ति पाना है।
- धार्मिक और दार्शनिक साधना- हर धार्मिक और दार्शनिक सतना का मतलब है मनोवैज्ञानिक अनुशासन जो कि मानसिक आरोग्य प्रणाली है। योग की शरीर में बहु रीत विधि प्रणालियां है, जिसका अर्थ मासिक सुविधा भी है, जो साधारण जिमनास्टिक और स्वास अभ्यास से कहीं अधिक श्रेष्ठ है, क्योंकि यह न केवल शारीरिक अथवा अध्यात्मिक भी है, शरीर के अंगों को व्यायाम ही कराता है, बल्कि यह उनको आत्मा के साथ भी एक रूप कराता है। उदाहरण के तौर पर प्राणायाम के अभ्यास में प्राण श्वास भी है और ब्रहमांड की सक्रिय शक्ति भी।
Massage of Paramhans Yoganand in Hindi 22-31
- क्रिया- क्रिया का मूल संस्कृत शब्द “क्र” है। जिसका अर्थ है करना और प्रतिक्रिया। यही मूल शब्द “कर्म” में भी है, प्राकृतिक नियम का कारण और प्रभाव। इस प्रकार क्रिया योग जुड़ना यानी एक विशिष्ट विधि के द्वारा स्वयं को आनंद के साथ जोड़ना।
- क्रिया-योग- क्रियायोग एक ऐसा साधन है, जिसके द्वारा मानव के विकास गति को बढ़ाया जा सकता है श्री युकतेश्वरजी के अनुसार- प्राचीन योगियों को पता चल गया था कि ब्रह्मांडिय चेतनता का रहस्य बहुत गहराई से श्वास पर प्रभुत्व यानि श्वास पर नियंत्रण से जुड़ा हुआ है। विश्व के ज्ञान संपदा के कोष में भारत का योगदान अपने में अनोखा और अमर यानि शाश्वत है। क्रिया योग की सरल और अचूक विधि को धीरे-धीरे और नियमित रूप से अभ्यास करते रहने से वह अंत में ब्रह्मांड ऊर्जा में यानी महाप्राण शक्ति की अनंत संभावनाओं को व्यक्त करने के योग्य हो जाता है। यह ब्रह्मांड की शक्ति सृष्टि के प्राण तत्व की प्रथम सक्रिय अभिव्यक्ति है।
- प्राकृतिक विकास की प्राप्ति- 1 दिन में 8 घंटे तक एक हजार बार क्रिया योग करने से एक योगी को 1000 वर्षों का नैसर्गिक यानी प्राकृतिक विकास की प्राप्ति होती है। 1 वर्ष में 365, 000 वर्षों का विकास। इस प्रकार एक क्रिया योगी 3 वर्षों में ही अपने बौद्धिक आदमी प्रयास से उसी परिणाम को प्राप्त कर लेता है जिसे प्राकृतिक रूप से करने पर 10,00000 वर्ष लगते। इस तरह के छोटे मार्ग वाली क्रिया जाहिर है किसी बहुत उन्नत योगियों द्वारा ही की जा सकती है। अपने गुरु के मार्गदर्शन से ऐसे ही होगी सावधानी पूर्वक अपने शरीर और मस्तिष्क को तैयार करते हैं, जिससे वे गहन अभ्यास द्वारा उत्पन्न शक्ति को ग्रहण कर सकें।
- मनुष्य की मृत्यु- एक अज्ञानी मनुष्य मृत्यु को केवल पार न कर पाने वाली दीवार की तरह देखते हैं, जो उसके प्रिय जनों को उसके पीछे छिपा लेती है, लेकिन ऐसा अनासक्त मनुष्य जिसने मोह माया का त्याग किया हो, जो सबको ईश्वर का रूप समझ कर प्यार करता हो, उसे इस बात का ज्ञान है कि मृत्यु में उसके प्रिय जन केवल कुछ समय के लिए वापस ईश्वर के साथ का आनंद लेने के लिए गए हैं।
- प्रकाश की गति- प्रकाश की गति एक गणितीय स्थिरांक अथवा मानक इसलिए नहीं है कि इसकी गति 1,86,000 प्रति सेकंड स्थिर है, बल्कि इसलिए है, क्योंकि ऐसा कोई क्योंकि कोई ऐसा पदार्थ नहीं है जिसका भार मात्रा उसकी गति के साथ बढ़ती है। उसकी गति प्रकाश की गति के बराबर कभी नहीं हो सकती है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो कोई ऐसा भौतिक पदार्थ जिसका भार असीमित हो उसकी गति ही केवल प्रकाश की गति के बराबर हो सकती है।
- ज्ञान चक्षु- मुक्ति दिलाने वाली तीसरी आंख यानी ज्ञान चक्षु पर लंबे समय तक ध्यान करने से एक सीधी होगी पदार्थ से संबंधित और उसके गुरुत्वाकर्षण भार के भ्रमों को नष्ट कर, सृष्टि को एक आवश्यक बिना किसी अंतर के प्रकाश द्रव्यमान अथवा और पुंज की तरह देखता है।
- अणु का निर्माण- ईश्वर ने सबसे पहले केवल पृथ्वी को एक विचार से बनाया है। फिर उसमें उसे गति दी; तब ऊर्जा के साथ अणु बने। उसने इन अणुओं को एक ठोस आकार दिया। इसके सभी अणु ईश्वर की इच्छा से एक साथ हैं। जब वह इसमें से अपनी इच्छा-शक्ति को वापस लेगा, तब पृथ्वी टूट के ऊर्जा में बदल जाएगी। यह ऊर्जा चेतना में घुल जाती है: तब एक प्रीति का विचार वस्तु से हट जाएगा, यानी यह मूर्त रूप से अमूर्त हो जाएगी।
- ध्यान- शरीर और मन की बेचैनी को काबू पाने का एकमात्र तरीका ध्यान केंद्रित तकनीक है। जिससे अप्रत्याशित परिणाम मिले हैं, एक छोटा बालक जिसकी उम्र 9 से 10 वर्ष के बीच होगी, वह एक घंटा या उससे अधिक एक ही अवस्था में बिना पलक झपकाए अपने आध्यात्मिक नेत्र पर ध्यान केंद्रित करके बैठा रह सकता है।
- मनुष्य के तीन शरीर- ईश्वर ने मनुष्य की आत्मा को सफलतापूर्वक 3 शरीरों में बंद किया है– पहला भाव यानी विचार या कारण शरीर, दूसरा सूक्ष्म शरीर, जो मनुष्य के मानसिक और भावनात्मक प्रकृति का स्थान है, और तीसरा स्थूल या भौतिक शरीर। धरती पर व्यक्ति भौतिक इंद्रियों से युक्त रहता है। सूक्ष्म जगत के लोगों का काम अपनी चेतना भावनाएं और शरीर प्राणशक्ति से चलता है। कारणधारी शरीर विचारों के आनंदमय जगत में रहता है। मेरा काम उन लोगों को, जो कारण जगत में प्रवेश करने हैं, उनका मार्गदर्शन करना है।
- मनुष्य- जब तक मनुष्य की आत्मा एक दो या अनेक शरीर रूपी डिब्बे में अज्ञानता और वासनाओं की इच्छाएं रूपी ढक्कन से बंद है, तब तक वह आत्माओं के सागर परम तत्व के साथ नहीं मिल सकता। जब मृत्यु का थोड़ा उसके हीन भौतिक शरीर को तोड़ देता है, तब भी सूक्ष्म आत्मा और कारण आत्मा दोनों अभी भी शरीरों में बंद हैं और वह सर्वव्यापी जीवन सागर परम तत्व में विलीन नहीं हो सकती। जब ज्ञान द्वारा उत्पन्न उसकी शक्ति दोनों बचे हुए शरीर भी बर्तन को तोड़ देती हैं तब आखिर मैं आजाद हुए छोटी-सी मनुष्य आत्मा निकलती है; यही वह अनंत आयाम के साथ एक हो जाती है।