इस ब्लॉग पोस्ट में हम आपसे Jitendra kumar Tripathi द्वारा लिखित Dard ka Rishta नामक ग़ज़ल संग्रह की Book Review को साझा करेंगे।
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Dard ka Rishta: Book Review
“दर्द का रिश्ता” जितेंद्र कुमार त्रिपाठी द्वारा लिखा गया ग़ज़ल संग्रह है। जिसे हिन्द युग्म ने जनवरी 2023 में प्रकाशित कर पाठकों के सामने साक्षात्कार किया है। जिसमें 65 गजलें, 12 रुबाइयों के साथ-साथ 10 अशआर भी मौजूद है। गज़लों के बारे में मुझे तो कोई अनुभव नहीं है, जिसे मैं कुछ कह सकूँ या आपसे कुछ इसके रस्क को साझा कर सकूँ, मैं ए अभी तक अगर कुछ ऐसा सुना है तो थोड़ा बहुत जाकिर खान के लबज़ों से ही सुना है।
उस हिसाब से यह मेरे द्वारा पढ़ी जाने वाली पहली ग़ज़ल की कीताब है। जिसे मैने पढ़ते वक्त जाकिर खान के द्वारा बया कीए गए लबजो की तरह ही पढ़ने की कोशिश भर की है, जो मुझे बहुत अच्छा लगा। जितेंद्र एक अच्छे ग़ज़ल लेखक हैं। चुकि उन्होंने एक सरकारी आदमी होते हुए भी अपने मन के अंदर बसे उस मुलाज़िम को जीवित कर इतने शानदार रचना की है।
जितेंद्र की ग़ज़ल संग्रह में आपको कोरोना जैसी महामारी, युवा, हल्की सी प्यार की खुशबू के साथ-साथ अपने कुछ दोस्तों और दुश्मनों पर तंज जरूर कसा है तो वहइन नए साल के आगमन भी कुछ लिखा गया है। जो बहुत ही मार्मिक है। जिसे पढ़ते वक्त आप मन ही मन खिल उठेंगे।
वैसे अगर बात की जाए इस कीताब को लेकर कुछ आलोचन कर्ताओं जैसे असगर वजाहत, डा. कृष्णकुमार ‘नाज़’ और पद्म श्री पाने वाले डा. विद्याविंदु सिंह का नाम सामने आता है। जिन्होंने इस की तारीफ में अपने कुछ अल्फ़ाज़ साझा किए हैं, जो आपको इस कीताब में पढ़ने को मिलेंगे।
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कुछ अच्छे और महत्वपूर्ण ग़ज़ल-
आए थे हम तेरी दिल्ली में जवानी लेकर
आए थे हम तेरी दिल्ली में जवानी लेकर अर्श से फर्श तक जाने की कहानी लेकर अपने हाथों की ताकत में ही पहचान लिए अपनी तकदीर बदल देने का अरमान लिए दुधमुहें बच्चे को रोता छोड़कर फुटपाथ पर चिलचिलाती धूप में हम तोड़ते रहते पत्थर संग यूं तोड़े कि हाथों में ज़ख्म कर डाला फिर भी तामीर कीए महल बुलंद-ओ-बाला सिला मेहनत का मगर हमको बराबर न मिला रहे फुटपाथ पर कि हमको कोई घर न मिला आया अज़ाब तो हमको ही निकाला तुमने हमारे हाथ का ही छीना निवाला तुमने हम हैं मजलूम, भले आज शिकायत न करें खैर मानो जो कभी भी बगावत न करें रहेगी हाथ में ताकत तो पलट आएंगे हाथ का लिक्खा तो हम फिर से उलट आएंगे। |
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एहसान जैसे सरेआम कर रहे हैं लोग
एहसान जैसे सरेआम कर रहे हैं लोग रिश्तों का ऐसा एहतराम कर रहे हैं लोग आज़ार ने बदल दिया तहज़ीब का मिजाज बस दूर से दुआ-सलाम कर रहे हैं लोग रोजगार ने जिन्हे था बेघर कभी किया घर लौटने का इंतजाम कर रहे हैं लोग जिनको बुलंदियों पर अपनी नाज़ था कभी फिलहाल जमी पर कयाम कर रहे हैं लोग |
मरने के खयाल से ही घबरा रहे हैं हम
मरने के खयाल से ही घबरा रहे हैं हम जिने की तमन्ना में मरे जा रहे हैं हम हमसे अज़ीम शख्स न होगा, हुआ, न है क्यों इस मुगालते में जिए जा रहे हैं हम क्या हमको अपनी खामियों का इतना खौफ है आईना देखने से जो कतरा रहे हैं हम अपने ही गिरेबा की खबर है नहीं मगर बस दूसरों पर तंज कीए जा रहे हैं हम गमगीन हुए हैं देख के दुनिया का दोहरापन नाकर्दा गुनाहों की सजा पा रहे हैं हम |
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रुबाइयाँ-
दोस्तों के रहते दुनिया इतनी वीरान न थी शक्ल दुश्मन की हमें इतनी भी पहचानी न थी जीना तो मुश्किल हुआ है हमने माना आजकल मगर मरने में भी तो इतनी परेशानी न थी। |
रात कितनी भी अंधेरी और ज़ालिम क्यों न हो दिन निकलना तो किसी सूरत भी रुक सकता नहीं जिसमें ज़मीर की हो लौ और तेल हो खुलूस का आधियाँ कितनी चले, वो दिया बुझ सकता नहीं। |
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अशआर-
हमें बस गम मिले तो इसका दुनिया से गीला कैसा कई ऐसे भी हैं दुनिया जिन्हे कुछ भी नहीं देती। |
रहम कर ऐ जिंदगी की तुझसे भर पाए हम जीते रहने की तमन्ना करके पछताए हैं हम |
जब छिड़ा जिक्र तेरे करमों का बात चुप रह कर के टाल दी हमने। |
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