Atit ke chalchitra Book in Hindi by Mahadevi varma pdf download. ‘अतीत के चलचित्र’ उन पात्रों का अमिट छाप है, जिनसे महादेवी वर्मा पर बहुत गहरा असर पड़ा।
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Atit ke chalchitra Book review
“अतीत के चलचित्र” महादेवी वर्मा द्वारा लिखा गया कोई कहानी संग्रह नहीं बल्कि एक स्मरण है। जिनके पात्र महादेवी के जीवन पर एक अमिट छाप छोड़ गए। महादेवी को उन पात्रों से रु-ब-रु कराने के लिए मैं उनको धन्यवाद दूंगा। जिसमें सबसे ज्यादा प्रभावशाली पात्र मुझे रामा, घिसा, अलोपी और लक्षमा लगे।
‘अतीत के चलचित्र’ और कुछ नहीं बल्कि महादेवी वर्मा के जीवन शुरू से लेकर अंत तक के प्रभावित करने वाले कुछ पात्रों के साथ घटी घटना का संग्रह है। जिसमें सबसे उच्च स्थान रामा का है। जो उनके बचपन का रख-रखाव किया करता था। और लोरी भी सुनाता था।
अगर मैं इस किताब के बारे में एक लाइन में कहूँ, तो महादेवी वर्मा द्वारा लिखित ‘’अतीत का चलचित्र” एक ऐसी किताब है, जो आपके हृदय को द्रवित कर के ही मानेगी। अंत तक- बस आप उनके पात्रों से थोड़ा मिलिये-जुलिए और जान-पहचान बढ़ाइए। फिर धीरे-धीरे वो पात्र, अपनी अमिट छवि आप पर छोड़ना शुरू करेंगे।
महादेवी के इतने सारे कविता, स्मरण और निबंध में से मेरे द्वारा पढ़ी जाने वाली यह पहली किताब है। जहां तक मुझे याद हैं, मैने इसके पहले सात, आठ या दस में पढ़ा था, दीपशिखा। और फिर हाईस्कूल के पेपर में जीवन परिचय लिख कर मैने पूरे 4 नंबर हासिल किये थे ।
बात करें अगर थोड़ा सा महादेवी वर्मा के चरित्र के बारे में तो महादेवी बहुत ही कोमल दिल की थी, जिसका हृदय हमेशा दूसरों की भलाई के लिए खुला रहता है, और पाँव हमेशा बाहर निकले रहते थे। चाहे, वो घीसा की शिक्षा हो, अलोपी को अपने यहाँ कां पर रखना हो, या फिर लक्षमा के साथ थोड़ा समय बिताना। महादेवी ने बड़े ही प्यार से सबके लिए अपने दिल के दरवाजे खोल रखे और जो भी थोड़ा बहुत बन पड़ा, अपने तरफ से भरपूर कोशिश किया।
महादेवी की इस स्मरण से वाकिफ होकर मुझे तो बहुत अच्छा लगा और मैँ चाहूँगा कि एक बार आप भी इस किताब को जरूर पढे। ऐसा लगेगा जैसे महादेवी आपके समक्ष अपनी बातें रख रही हैं, और आप चुपचाप सुनते जा रहे हैं। वैसे इस किताब को पब्लिश अभिजीत पब्लिकेशन ने किया है।
Summary ऑफ Atit ke chalchitra
जैसा की मैने पहले ही कहा है कि यह किताब कोई उपन्यास या कहानी संग्रह नहीं है लेकिन फिर भी महादेवी की स्मरण से, जिस भी पात्र ने मुझे प्रभावित किया है, उनके बारे में आपसे साझा जरूर करूंगा।
रामा-
रामा! महादेवी के जीवन का सबसे ज्यादा और प्रभावित करने वाला पहला पात्र। जिनके साथ महादेवी बचपन में अपने भाई-बहनों के साथ खेला करती थी। रामा का सुबह के समय बच्चों को जगाने से लेकर रात को लोरी गाकर सुलाने तक का साथ रहता था।
रामा नाटा, काले और गठे शरीर वाला था, जिसकी नाखून और बाल बड़े-बड़े हुआ करते थे। मोटी नाक, सांस के प्रवाह से फैले हुए नथुने मुक्त हंसीं से भरकर मुक्त हंसीं से भरकर फुले हुए-से ओठ तथा काले पत्थर की प्याली में दही याद दिलाने वाली सघन और सफेद दांत-पक्ति के संबंध में भी यही सही सत्य है। इसमें कोई दोमत नहीं कि रामा कुरूप जरूर था; लेकिन उससे भव्य साथी की कल्पना भी हमें असह्य थी।
रामा महादेवी और उनके भाइयों को बाज़ार घुमाने और कभी-कभी मेला घुमाने भी ले जाया करता था, रात को अपने हाथों से उन्हे खाना भी खिलाता और एक-एक करसबकों चम्मच से दूध पिलाया करता था। पर एक दिन माँ ने उससे अपनी घर-गृहस्ती बसाने को कहा और उसने मना कर दिया। कुछ दिन बाद अचानक एक घूँघटवाली को लेकर दरवाजे पर प्रकट हो गया।
महादेवी और बाकि बच्चे उससे पीछा छुड़ाने के लिए उसे परेशान करते, क्योंकि रामा अब उन्हे समय नहीं दे पाता था। आए दिन सब बच्चे रामा की बहुरिया को परेशान किया करते और बहुरिया जब बच्चों को कुछ नहीं कह पाति तो रामा को सब सहना पड़ता। एक दिन रामा कि बहुरिया उसे छोड़कर अपने माइके चली गई, जिसके बाद राम फिर से एक आज़ाद सा महसूस करने लगा और बच्चे भी खुश रहने लगे। लेकिन माँ के कहने पर जब रामा वापस गया और फिर कभी ना लौटा। माँ के द्वारा पत्र लिखने पर पता चला कि रामा बीमार है। माँ ने उसे रुपये भेजे और आने के लिए पत्र भी लिखा लेकिन उधर से न कोई जवाब आया और न ही रामा।
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घिसा-
घिसा बाप के मरने के आद माँ जब उसे एक किनारे रख कर मजदूरी करने लगती तब वह घसीट-घसीट कर अपना नाम रख रहा था। माँ के विनती करने पर महादेवी ने बाकि बचहोन की तरह उसे भी पढ़ना शुरू कर दिया । सारे बच्चों में से उसकी छवि एक डम अलग थी। नहादेवी को गुरु साहब कहा करता था। और गुरु साहब से झूठ बोलना भगवान से झूठ बोलने की बातें किया करता था।
महादेवी उसके वात्सल्य से बहुत प्रभावित रहती थी। बाकि बच्चे उससे दूर रहते थे कीकी उनके घर वालों ने उससे दूर रहने को कहा था। एक बार महादेवी ने सारे बच्चों में जलेबी बाटीं, घिसा अपना हिस्सा लिए ना जाने कहाँ गायब हो गया
क्लास के दूसरे बच्चे से पता चला कि अपने हिस्से में से माँ के लिए और बिन माँ के पाले गए पील्ले के बच्चे को जलेबी देने गया है। लौट कर जब आया तो महादेवी ने उससे पूछा क्या उसे कुछ और चाहिए, पर कुछ बोल न सका और सर नीचे किये कहा कि उसके पिल्ले के बच्चे को कुछ कम मिला है, अगर थोड़ा और मिल जाता तो ठीक होता। घिसे की इस बात से महादेवी बहुत प्रभावित हुई।
घिसे ने एक बार प्रभावित किया, हुआ यूं कि उसकी तबीयत खराब होने के कारण पढ़ाई के लिए नही जा पाता था, लेकिन जब उसे पता चला कि शहर में हिन्दू-मुस्लिम दंगा हुआ है तो उसी खराब तबीयत में रात के समय महादेवी के कक्ष में प्रवेश किया और शहर ना जाने की जिद पर पैर पकड़े बैठ गया। महादेवी ने उसे बहुत समझाया, पर उसने एक न सुनी। लेकिन महादेवी ने जब ये कहा कि शहर में बिन माँ बच्चे हैं, जो हॉस्टल में रहते हैं और उनकी प्रतीक्षा कर रहे होंगे, तो घिसा कुछ नहीं कहा और राजी हो गया। जिससे महादेवी बहुत अचंभित हुई।
गर्मी की छुट्टी के आखिरी दिनों के क्लास में घिसा किसी कारण वश न आ सका। महादेवी उससे मिलने की इच्छा रखती है, क्योंकि फिर ना जाने कब आगमन होगा। दोपहरी में गावं से नदी पार करने के लिए अभी नाव पर सवार होती है कि उन्हे एक दूर कोई काली बिन्दु उनके तरफ आता हुआ प्रतीत होता है, जिसे देख कर महादेवी को लग जाता है कि घिसा ही है।
करीब आने पर पता चलता है कि उसके हाथों में दो बड़े-बड़े तरबूज हैं, जो कटे हुए हैं और एक में थोड़ा सा खाया हुआ भी है। तो क्या उसने इसे चुराया है? क्योंकि उसके पास न तो पैसा है और ना ही खेत। तब घिसा भगवान रूपी गुरु साहब से सच कहता है कि उसने अपने शर्ट को बेंच कर इस तरबूज को हासिल किया है।और कहीं ये कच्चा न हो, इसलिए उसने काट कर देखा है और मीठे की जांच करने के लिए थोड़ा सा खाया भी है।
रही बात इसके कीमत की तो, आप इसकी चिंता ना करें क्योंकि गर्मी के दिनों में मैं शर्ट नहीं पहनता। इस बात से महादेवी के दिल पसीज जाते हैं। और महादेवी उसके इस करुणा से द्रवित हो गई। माहादेवी घिसा के तरबूज को लेकर अपने को धनी मानती है क्योंकि आज तक कभी किसी शिष्य ने ऐसा उपहार अपने गुरु को नहीं दिया होगा। महादेवी उसका व्यवस्था कर शहर को लौट जाती हैं। लेकिन जब तक शहर से लौटती घिसा भगवान के घर को लौट चुका होता है।
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अलोपी-
अलोपी! एक अंधा लड़का। जिसकी उम्र तेईस वर्ष की है और पिता का स्वर्गवास हो चुका है। माँ तरकारियाँ लेकर फेरि लगाती है; पर पुत्र को अच्छा नहीं लगता कि जवान आदमी बैठा रहे और बुढ़िया मर-मर कर कमावे। इसी से शहक-तरकारियों के तत्ववेत्ता ताऊ से यहाँ की चर्चा सुन, वह कां की खोज में निकल पड़ता है।
कां की तलस में अलोपी महादेवी के हॉस्टल पहुंचा। महादेवी के पूछने पर बताया कि आपके और छात्रावास के विद्यार्थिनियों के लिए देहात के खेतों से सस्ती और अच्छी तरकारियाँ लाएगा। महादेवी को जब लगा किन अलोपी ये कैसेकरसकताह तो उसने तुरंत अपने फुफेरे भाई रग्घू की ओर संकेत कर बताया कि उन दोनों के सम्मिलित पुरुषार्थ के कठिनतम कार्य भी संभव होते रहे हैं।
महादेवी ने दोनों को काम पर रख लिया। गावं से ताजी सब्जियों के साथ-साथ आम, अमरूद और जामुन भी आने लगे। इस तरह अलोपी हॉस्टल की सारी लड़कियों का चहेता बन गया था चुकी उसकी कोई बहन नहीं थी इसलिए वो हॉस्टल में रहने वाली सभी बहनों का प्यार समेटने में व्यस्त हो गया। महादेवी जब उसे पैसे देती तो कहता कि महीने में एक साथ देना।
महीने पर देने पर 70-80 रुपये होते हैं और सारे पैसे इकट्ठा किया करता था। अलोपी को तीन साल पूरे होंने को थे । महादेवी ने उसे नसीहत दी कि शादी कर अपना घर बसा ले और उसने ऐसा ही किया, पर हुआ यूं कि उसके द्वारा रखे गए सारे पैसे और कुछ छुपाये हुए गहने लेकर मूढ़ी भाग गई और अलोपी का दिल टूट गया।
आता है काम पर लेकि उखड़ा-उखड़ा सा रहता है। मन नहीं लगता उसका। कुछ दिन बाद आना बंद कर दिया और तीन दिन बाद अपनी रोती लाल आँख लेकर महादेवी के समक्ष पहुंचा तो कहाँ कि उसका अंधा दादा बिना उसे साथ लिए ही न जाने किस अज्ञात लोक की महायात्रा पर चल पड़ा।
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लक्षमा
लक्षमा की जीवन-गाथा उसके आंसुओं में भीग-भीगकर अब इतनी भारी हो गई है कि कोई अथक कथावाचक और अचल श्रोता भी उसका भार वहन करने को प्रस्तुत नहीं।
गावं से साठ मिल दूर स्थित दूसरे गावं में लक्षमा का विवाह हुआ था। लक्षमा का ससुराल सब कुछ से भरा पड़ा था। ज़मीन-जायदाद, गाय-भैस बड़ी मात्रा में उपलब्ध था। इयतना सब देख कर भाग्य ने लक्षमा का साथ छोड़ दिया और ये कि उसका पति का मानसिक विकास एक बालक की भाति था। सास-ससुर के स्वभाव तो ठीक थे, पर जेठों ने अत्याचार करना शुरू कर दिया।
लक्षमा इतनी जल्दी हार माननेवालों में से नहीं थी। और फिर एक दिन उसकी इटनी पिटाई हुई कि मृत्यु हो गई। देवर और जेठ ने खड्डे में फेक दिया। वो तो भगवान ने उसकी जान बचा ली और होश आया तो किसी तरह लड़खड़ाते हुए दूसरे गावं जा पहुंची। लेकिन एक भी शब्द उसने अपने परिवार के खिलाफ न बोला।
पूछते-पाछते किसी तरह तीन दिन में अपने पुराने डेरे पर पहुंची। घर वालों और गावं वालों ने थोड़ा हिम्मत दिया पर उसने अपने ससुराल वालों के खिलाफ कुछ भी करने से मना कर दिया। और अपना गुजर-बसर करने लगी। कुछ दिनों बाद भाभी ने एक पुत्र को उसके गोद में डाल काल के गाल में समा गई और उसके जीवन को सहारा मिल गया।
काश्मीर के दौरे पर निकली महादेवी की मुलाकात पहली बार लक्षमा से हुई। उसकी व्यथा को सुन कर महादेवी के मन ऐसा विचार आया कि उसे लेकर अपने साथ प्रयाग को चली जाए और पढ़ाए-लिखाए; पर लक्षमा टूटे घर की दीवारों को देखने लगती और सर नीचे कर लेती। आउ कहती की पढ़-लिख कर क्या होगा, इन जंगलों में पेड़-पौधों के बीच।
एक दिन लक्षमा छत्ते के मोमी टुकड़ों के साथ हाल का निकाला हुआ शहद लेकर दौड़ी आई और महादेवी से तुरंत खा लेने का अनुरोध करने लगी। वैसे महादेवी को मीठा ज़्यादा नहीं भाता लेकिन उसके अनुनय-विनय करने पर खा लिया। उसके बाद हमेशा कुछ-न-कुछ लाती रहती है। कभी अंगूर का गुच्छा, भैस का दूध-दही तो कभी पत्ते पर मक्खन दौड़ती चली आती। और खिलाने का जिद्द करने लगती। जिससे महादेवी को अपनी माँ की याद आ जाया करती।
कुछ वर्ष पूर्व लक्षमा के जीवित हो जाने की खबर पाकर ससुराल वालों ने बुलावा भेजा, लेकिन लक्षमा ने जाने से मना कर दिया और अपने बालक बुद्धि के समान पति से कहा कि वो खुद अपने भाइयों को छोड़ कर यहाँ चले आवे। अपने पति की सुख के लिए वो दिन भर, पूरी रात मेहनत-मजदूरी करेगी ताकि उसका जियावन आराम से कट सके। लक्षमा का उसके साथ विवाह हुआ है अतः वह जीवन भर साथ न छोड़ेगी । पर उसके घर नहीं जा सकती, क्योंकि वहाँ लोग उसे मार डालेंगे और उसके माता-पिता, भतीजा-भतीजी भूख से अपने-आप मर जाएंगे।
लक्षमा की इस बात को सुन कर ससुराल से आए सम्बंधी उल्टे पाँव लौट गए। जिसके बादउसके गावं में भी कुछ हलचल पैदा हुई, पर उन सब बातों की कोई परवाह न करती हुई लक्षमा निरंतर अपने काम लगी रहती। महादेवी के जब लौटने कादिन हुआ तो भैस दुहकर वह जल्दी से लौट आती। बीच-बीच में भागकर अपने घरको जाति और फिर तुरंत चली आती। और कुछ मिल तक छोड़ने भी जाती। महादेवी उसे लौटने को बोलती पर वो उनकी बातों को टालते हुए कुछ पल को और उनके साथ कदम मिला कर चलती रहती।
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Jivan Parichay
वह छायावाद पीढ़ी की एक जानी-मानी हिंदी कवयित्री हैं, उस समय जब हर कवि अपनी कविता में रूमानियत को समाहित करता था। उन्हें अक्सर आधुनिक मीरा कहा जाता है, तो वही कवि निराला ने उन्हे हिन्दी के विशाल मंदिर का सरस्वती से संबोधित किया। खैर, हम बात कर रहे हैं प्रसिद्ध महादेवी वर्मा की, जिन्होंने वर्ष 1982 में ज्ञानपीठ पुरस्कार हासिल किया था।
महादेवी का जन्म 1907 में उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद में वकीलों के परिवार में हुआ था। उन्होंने मध्य प्रदेश के जबलपुर में अपनी शिक्षा पूरी की। 1914 में सात साल की छोटी उम्र में उनका विवाह डॉ स्वरूप नारायण वर्मा से हो गया। जब तक उनके पति ने लखनऊ में अपनी पढ़ाई पूरी नहीं की, तब तक वह अपने माता-पिता के साथ रहीं। इस अवधि के दौरान, महादेवी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में आगे की शिक्षा प्राप्त की। वहीं से उन्होंने संस्कृत में मास्टर्स किया।
वह कुछ समय के लिए 1920 के आसपास तमकोई रियासत में अपने पति से मिलीं। इसके बाद, वह कविता में अपनी रुचि को आगे बढ़ाने के लिए इलाहाबाद चली गईं। दुर्भाग्य से, वह और उनके पति ज्यादातर अलग-अलग रहते थे और अपने व्यक्तिगत हितों को आगे बढ़ाने में व्यस्त थे। वे कभी-कभार ही मिलते थे। वर्ष 1966 में उनके पति की मृत्यु हो गई। फिर, उन्होंने स्थायी रूप से इलाहाबाद में स्थानांतरित होने का फैसला किया।
वह बौद्ध संस्कृति द्वारा प्रचारित मूल्यों से अत्यधिक प्रभावित थीं। उनका बौद्ध धर्म की ओर इतना झुकाव था कि उन्होंने बौद्ध भिक्षु बनने का भी प्रयास किया।चुकी उस समय हिंदुस्तान में अंग्रेजों के खिलाफ बागवात चल रही थी, तभी ऊअनकी मुलाकात महात्मा गांधी से हुई और वो उनके साथ मिलकर कुछ कामों में व्यस्त हो गई। इलाहाबाद (प्रयाग) महिला विद्यापीठ की स्थापना के साथ, जो मुख्य रूप से लड़कियों को सांस्कृतिक मूल्य प्रदान करने के लिए स्थापित किया गया था, वह संस्थान की पहली प्रधानाध्यापिका बनीं। 11 सितंबर, 1987 में इस मशहूर शख्सियत का निधन हो गया।
शिक्षा-
मिडिल प्रांत भर में प्रथम, इंतरेंस परम श्रेणी में, फिर 1924 में इंटर, 1929 में बि. ए. , प्रयाग विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम. ए. 1932 में किया।
लेखन
महादेवी वर्मा हिंदी साहित्य के छायावादी विचारधारा की अन्य प्रमुख कवियों में से एक हैं। वह बाल विलक्षणता की प्रतिमूर्ति हैं। उन्होंने न केवल शानदार कविताएँ लिखीं, बल्कि दीपशिखा और यात्रा जैसी अपनी काव्य रचनाओं के लिए रेखाचित्र भी बनाए। दीपशिखा महादेवी वर्मा की सर्वश्रेष्ठ कृतियों में से एक है। वह अपने संस्मरणों की पुस्तक के लिए भी प्रसिद्ध हैं।
काव्य
- यामा
- दीपशिखा
- नीरजा
- सांध्यगीत
- संधिनी
- सप्तपर्णा
- हिमालय
संस्मरण/निबंध
- शृंखला की कड़ियाँ
- पथ के साथी
- अतीत के चलचित्र
- स्मृति की रेखाएं
- मेरा परिवार
- चिंतन के क्षण
- क्षणदा
- साहित्यकार की आस्था तथा निबंध
सम्मान
महादेवी वर्मा की लेखन को खूब सराहा गया और उन्होंने हिंदी साहित्य की दुनिया में एक महत्वपूर्ण स्थान अर्जित किया। उन्हें छायावाद आंदोलन के सहायक स्तंभों में से एक माना जाता है। उनके अद्भुत काव्य संग्रह यामा ने उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार (1940), सर्वोच्च भारतीय साहित्यिक पुरस्कार दिलाया। वर्ष 1956 में, भारत सरकार ने उन्हें पद्म भूषण की उपाधि से सम्मानित किया। वह 1979 में साहित्य अकादमी की फेलो बनने वाली पहली भारतीय महिला थीं।
FAQ
Q: अतीत के चलचित्र किसकी रचना है?
Ans: अतीत के चलचित्र महादेवी वर्मा की रचना है।
Q:अतीत के चलचित्र के बारे में बताइए?
Ans: महादेवी वर्मा द्वारा लिखित जीवन में प्रभावित करने वाले ग्यारह पात्रों का संस्मरण है।
Q: अतीत के चलचित्र में सबसे पहला पात्र कोन सा है?
Ans: रामा! सबसे पहला पात्र है।
Q: अतीत के चलचित्र के लिखने की शुरुआत कब हुई थी?
Ans: 1920 में महादेवी वर्मा ने 17 साल के उम्र में अपनी पात्र को लिखा था।
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